Dharm and Vigyan

Test blog

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry’s standard dummy text ever since the 1500s, when an unknown printer took a galley of type and scrambled it to make a type specimen book. It has survived not only five centuries, but also the leap into electronic typesetting, remaining essentially unchanged. It was popularised in the 1960s with the release of Letraset sheets containing Lorem Ipsum passages, and more recently with desktop publishing software like Aldus PageMaker including versions of Lorem Ipsum.

शिखा सूत्र का वैदिक विज्ञान

शिखा सूत्र का वैदिक विज्ञान

सिर के ऊपरी भाग को ब्रह्मांड कहा गया है और सामने के भाग को कपाल प्रदेश। कपाल प्रदेश का विस्तार ब्रह्मांड के आधे भाग तक है। दोनों की सीमा पर मुख्य मस्तिष्क की स्थिति समझनी चाहिए।

ब्रह्मांड का जो केन्द्रबिन्दु है, उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं। ब्रह्मरंध्र में सुई की नोंक के बराबर एक छिद्र है जो अति महत्वपूर्ण है। सारी अनुभूतियां, दैवी जगत् के विचार, ब्रह्मांड में
क्रियाशक्ति और अनन्त शक्तियां इसी ब्रह्मरंध्र से प्रविष्ट
होती हैं। हिन्दू धर्म में इसी स्थान पर चोटी(शिखा) रखने का
नियम है। ब्रह्मरंध्र से निष्कासित होने वाली ऊर्जा शिखा के माध्यम से प्रवाहित होती है ।

वास्तव में हमारी शिखा जहां एक ओर ऊर्जा को प्रवाहित
करती है, वहीं दूसरी ओर उसे ग्रहण भी करती है। वायुमंडल में
बिखरी हुई असंख्य विचार तरंगें और भाव तरंगें शिखा के माध्यम से ही मनुष्य के मस्तिष्क में प्रविष्ट होती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं, हमारा मस्तिष्क एक प्रकार से रिसीविंग और ब्रॉडकास्टिंग सेंटर का कार्य शिखारूपी एंटीना या एरियल के माध्यम से करता है। मुख्य मस्तिष्क( सेरिब्रम) के बाद लघु मस्तिष्क(सेरिबेलम) है और ब्रह्मरंध्र के ठीक नीचे अधो मस्तिष्क (मेडुला एबलोंगेटा) की स्थिति है जिसके साथ एक ‘मेडुला’ नामक अंडाकार पदार्थ संयुक्त है। वह मस्तिष्क के भीतर विद्यमान एक तरल पदार्थ में तैरता रहता है। मेरूमज्जा का अन्त इसी अंडाकार पदार्थ में होता है। यह पदार्थ अत्यन्त रहस्यमय है। आज के वैज्ञानिक भी इसे समझ नहीं सके हैं। बाहर से आने वाली परिदृश्यमान शक्तियां अधो मस्तिष्क से होकर इसी अंडाकार पदार्थ से टकराती हैं और योग्यतानुसार मानवीय विचारों, भावनाओं, अनुभूतियों में
स्वतः परिवर्तित होकर बिखर जाती हैं।

योगसाधना की दृष्टि से मुख्य मस्तिष्क आकाश है। मनुष्य जो
कुछ देखता है, कल्पना करता है, स्वप्न देखता है–यह सारा अनुभव उसको इसी आकाश में करना पड़ता है।

Mahamritunjay Mantra

।।महामृत्युंजय मंत्र संपूर्ण व्याख्या।।

महामृत्युंजय मंत्र में 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ठ के अनुसार 33 कोटि (प्रकार) देवताओं के द्योतक हैं उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्यठ 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं।

इन तैंतीस कोटि देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहित होती हैं.

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।

महामृत्युंजय मंत्र”मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र” जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है,

ऋग्वेद का एक श्लोक है।

यह त्रयंबक “त्रिनेत्रों वाला”, रुद्र का विशेषण (जिसे बाद में शिव के साथ जोड़ा गया)को संबोधित है।

यह श्लोक यजुर्वेद में भी आता है।गायत्री मंत्र के साथ यह समकालीन हिंदू धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है।

शिव को मृत्युंजय के रूप में समर्पित महान मंत्र ऋग्वेद में पाया जाता है।
इसे मृत्यु पर विजय पाने वाला महा मृत्युंजय मंत्र कहा जाता है।

इस मंत्र के कई नाम और रूप हैं।

इसे शिव के उग्र पहलू की ओर संकेत करते हुए रुद्र मंत्र कहा जाता है.

शिव के तीन आँखों की ओर इशारा करते हुए त्रयंबकम मंत्र …

कभी कभी मृत-संजीवनी मंत्र के रूप में जाना जाता है क्योंकि यह कठोर तपस्या पूरी करने के बाद पुरातन ऋषि शुक्र को प्रदान की गई “जीवन बहाल” करने वाली विद्या का एक घटक है।

ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का
ह्रदय कहा है।

चिंतन और ध्यान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है।

महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ

त्रयंबकम = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)

यजामहे = हम पूजते हैं,सम्मान करते हैं,हमारे श्रद्देय।

सुगंधिम= मीठी महक वाला, सुगंधित (कर्मकारक)

पुष्टि = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली,समृद्ध जीवन की परिपूर्णता।

वर्धनम = वह जो पोषण करता है,शक्ति देता है, (स्वास्थ्य,धन,सुख में) वृद्धिकारक;जो हर्षित करता है,आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है,एक अच्छा माली।

उर्वारुकम= ककड़ी (कर्मकारक)।

इव= जैसे,इस तरह।

बंधना= तना (लौकी का); (“तने से” पंचम विभक्ति – वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित होती है)।

मृत्युर = मृत्यु से।

मुक्षिया = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें।

मा= न।

अमृतात= अमरता, मोक्।ष

सरल अनुवाद

हम त्रि-नेत्रीय वास्तविकता का चिंतन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है।
ककड़ी की तरह हम इसके तने से अलग (“मुक्त”) हों,अमरत्व से नहीं बल्कि मृत्यु से हों।

||महा मृत्‍युंजय मंत्र ||

ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्‍बकं
यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव
बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात्
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!

||महा मृत्‍युंजय मंत्र का अर्थ ||

”समस्‍त संसार के पालनहार,तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्‍व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्‍यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं।”

महामृत्युंजय मंत्र के वर्णो (अक्षरों) का अर्थ

महामृत्युंघजय मंत्र के वर्ण पद वाक्यक चरण
आधी ऋचा और सम्पुतर्ण ऋचा-इन छ: अंगों
के अलग-अलग अभिप्राय हैं।

ओम त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि
वशिष्ठर के अनुसार 33 कोटि(प्रकार) देवताओं के घोतक हैं।

उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्यठ 1 प्रजापति तथा 1 षटकार हैं।

इन तैंतीस कोटि देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहीत होती है जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं।

साथ ही वह नीरोग,ऐश्व‍र्य युक्ता धनवान भी होता है।

महामृत्युंरजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवम समृध्दिशाली होता है।
भगवान शिव की अमृतमययी कृपा उस निरन्तंर बरसती रहती है।

त्रि – ध्रववसु प्राण का घोतक है जो सिर में स्थित है।

यम – अध्ववरसु प्राण का घोतक है,जो मुख में स्थित है।

ब – सोम वसु शक्ति का घोतक है,जो दक्षिण
कर्ण में स्थित है।

कम – जल वसु देवता का घोतक है,जो वाम कर्ण में स्थित है।

य – वायु वसु का घोतक है,जो दक्षिण बाहु में स्थित है।

जा- अग्नि वसु का घोतक है,जो बाम बाहु में स्थित है।

म – प्रत्युवष वसु शक्ति का घोतक है, जो दक्षिण बाहु के मध्य में स्थित है।

हे – प्रयास वसु मणिबन्धत में स्थित है।

सु -वीरभद्र रुद्र प्राण का बोधक है।
दक्षिण हस्त के अंगुलि के मुल में स्थित है।

ग -शुम्भ् रुद्र का घोतक है दक्षिणहस्त्
अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।

न्धिम् -गिरीश रुद्र शक्ति का मुल घोतक है।
बायें हाथ के मूल में स्थित है।

पु- अजैक पात रुद्र शक्ति का घोतक है।
बाम हस्तह के मध्य भाग में स्थित है।

ष्टि – अहर्बुध्य्त् रुद्र का घोतक है,बाम हस्त
के मणिबन्धा में स्थित है।

व – पिनाकी रुद्र प्राण का घोतक है।
बायें हाथ की अंगुलि के मुल में स्थित है।

र्ध – भवानीश्वपर रुद्र का घोतक है,बाम हस्त
अंगुलि के अग्र भाग में स्थित है।

नम् – कपाली रुद्र का घोतक है। उरु मूल में
स्थित है।

उ- दिक्पति रुद्र का घोतक है।
यक्ष जानु में स्थित है।

र्वा – स्था णु रुद्र का घोतक है जो यक्ष गुल्फ् में स्थित है।

रु – भर्ग रुद्र का घोतक है,जो चक्ष पादांगुलि मूल में स्थित है।

क – धाता आदित्यद का घोतक है जो यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में स्थित है।

मि – अर्यमा आदित्यद का घोतक है जो
वाम उरु मूल में स्थित है।

व – मित्र आदित्यद का घोतक है जो
वाम जानु में स्थित है।

ब – वरुणादित्या का बोधक है जो वाम
गुल्फा में स्थित है।

न्धा – अंशु आदित्यद का घोतक है।
वाम पादंगुलि के मुल में स्थित है।

नात् – भगादित्यअ का बोधक है।
वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में स्थित है।

मृ – विवस्व्न (सुर्य) का घोतक है जो दक्ष पार्श्वि में स्थित है।

र्त्यो् – दन्दाददित्य् का बोधक है।
वाम पार्श्वि भाग में स्थित है।

मु – पूषादित्यं का बोधक है।
पृष्ठै भगा में स्थित है।

क्षी – पर्जन्य् आदित्यय का घोतक है।
नाभि स्थिल में स्थित है।

य – त्वणष्टान आदित्यध का बोधक है।
गुहय भाग में स्थित है।

मां – विष्णुय आदित्यय का घोतक है यह
शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में स्थित है।

मृ – प्रजापति का घोतक है जो कंठ भाग में स्थित है।

तात् – अमित वषट्कार का घोतक है जो
हदय प्रदेश में स्थित है।

उपर वर्णन किये स्थानों पर उपरोक्तध देवता,
वसु आदित्य आदि अपनी सम्पुर्ण शक्तियों सहित विराजत हैं।

जो प्राणी श्रध्दा सहित महामृत्युजय मंत्र का पाठ करता है उसके शरीर के अंग – अंग (जहां के जो देवता या वसु अथवा आदित्यप हैं) उनकी रक्षा होती है।

मंत्रगत पदों की शक्तियाँ जिस प्रकार मंत्रा में अलग अलग वर्णो (अक्षरों) की शक्तियाँ हैं।
उसी प्रकार अलग – अल पदों की भी शक्तियाँ है।

त्र्यम्‍‍बकम् – त्रैलोक्यक शक्ति का बोध कराता है जो सिर में स्थित है।

यजा- सुगन्धात शक्ति का घोतक है जो ललाट में स्थित है।

महे- माया शक्ति का द्योतक है जो कानों में स्थित है।

सुगन्धिम् – सुगन्धि शक्ति का द्योतक है जो नासिका (नाक) में स्थित है।

पुष्टि – पुरन्दिरी शक्ति का द्योतक है जो मुख में स्थित है।

वर्धनम – वंशकरी शक्ति का द्योतक है जो कंठ में स्थित है।

उर्वा – ऊर्ध्देक शक्ति का द्योतक है जो ह्रदय में स्थित है।

रुक – रुक्तदवती शक्ति का द्योतक है जो नाभि में स्थित है।

मिव रुक्मावती शक्ति का बोध कराता है जो कटि भाग में स्थित है।

बन्धानात् – बर्बरी शक्ति का द्योतक है जो गुह्य भाग में स्थित है।

मृत्यो: – मन्त्र्वती शक्ति का द्योतक है जो उरुव्दंय में स्थित है।

मुक्षीय – मुक्तिकरी शक्तिक का द्योतक है जो जानुव्दओय में स्थित है।

मा – माशकिक्तत सहित महाकालेश का बोधक है जो दोंनों जंघाओ में स्थित है।

अमृतात – अमृतवती शक्तिका द्योतक है जो पैरो के तलुओं में स्थित है।

महामृत्युजय प्रयोग के लाभ …..

कलौकलिमल ध्वंयस सर्वपाप हरं शिवम्।
येर्चयन्ति नरा नित्यं तेपिवन्द्या यथा शिवम्।।

स्वयं यजनित चद्देव मुत्तेमा स्द्गरात्मवजै:।
मध्यचमा ये भवेद मृत्यैतरधमा साधन क्रिया।।

देव पूजा विहीनो य: स नरा नरकं व्रजेत।
यदा कथंचिद् देवार्चा विधेया श्रध्दायान्वित।।

जन्मचतारात्र्यौ रगोन्मृदत्युतच्चैरव विनाशयेत्।

कलियुग में शिवजी की पूजा अत्याधिक फल देने
वाली है।
समस्त पापं एवं दु:ख भय शोक आदि का हरण
करने के लिए महामृत्युजय की विधि ही श्रेष्ठ है।

ॐ नमः शिवाय…..
ॐ नमो मृत्युंजय महादेवाय नमस्तुते…..ll

Janeu Pahanane Ke Laabh

जनेऊ पहनने के लाभ

पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार करदिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है। यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम- क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से
उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र,वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता। यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं- उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं ।ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता।यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः”

जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का अब एक एक जनेऊ में 9 – 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 – 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 – 9 धांगों के अंदर से 1 – 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 – 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 – 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है,
जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है| यथा- “ निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत” अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है।

अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रमह सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है। बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।

“ॐ एक जादुई शब्द “

हिन्दू धर्म में ओम एक ‘विशेष ध्वनि’ का शब्द है। तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम। आओ जानते हैं इसका रहस्य और चमत्कार।
 
 अनहद नाद : इस ध्वनि को अनाहत कहते हैं। अनाहत अर्थात जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं होती बल्कि स्वयंभू है। इसे ही नाद कहा गया है। ओम की ध्वनि एक शाश्वत ध्वनि है जिससे ब्रह्मांड का जन्म हुआ है। ॐ एक ध्वनि है, जो किसी ने बनाई नहीं है। यह वह ध्वनि है जो पूरे कण-कण में, पूरे अंतरिक्ष में हो रही है और मनुष्य के भीतर भी यह ध्वनि जारी है। सूर्य सहित ब्रह्मांड के प्रत्येक गृह से यह ध्वनि बाहर निकल रही है।
 
 ब्रह्मांड का जन्मदाता : शिव पुराण मानता है कि नाद और बिंदु के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई। नाद अर्थात ध्वनि और बिंदु अर्थात शुद्ध प्रकाश। यह ध्वनि आज भी सतत जारी है। ब्रह्म प्रकाश स्वयं प्रकाशित है। परमेश्वर का प्रकाश। इसे ही शुद्ध प्रकाश कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड और कुछ नहीं सिर्फ कंपन, ध्वनि और प्रकाश की उपस्थिति ही है। जहां जितनी ऊर्जा होगी वहां उतनी देर तक जीवन होगा। यह जो हमें सूर्य दिखाई दे रहा है एक दिन इसकी भी ऊर्जा खत्म हो जाने वाली है। धीरे-धीरे सबकुछ विलिन हो जाने वाला है। बस नाद और बिंदु ही बचेगा।
 
ओम शब्द का अर्थ : ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म…। इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। अ मतलब अकार, उ मतलब ऊंकार और म मतलब मकार। ‘अ’ ब्रह्मा का वाचक है जिसका उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। ‘उ’ विष्णु का वाचक हैं जिसाक त्याग कंठ में होता है तथा ‘म’ रुद्र का वाचक है और जिसका त्याग तालुमध्य में होता है।


 ओम का आध्यात्मिक अर्थ : ओ, उ और म- उक्त तीन अक्षरों वाले शब्द की महिमा अपरम्पार है। यह नाभि, हृदय और आज्ञा चक्र को जगाता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है। ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं।
 मोक्ष का साधन :

ओम ही है एकमात्र ऐसा प्रणव मंत्र जो आपको अनहद या मोक्ष की ओर ले जा सकता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार मूल मंत्र या जप तो मात्र ओम ही है। ओम के आगे या पीछे लिखे जाने वाले शब्द गोण होते हैं। प्रणव ही महामंत्र और जप योग्य है। इसे प्रणव साधना भी कहा जाता है। यह अनादि और अनंत तथा निर्वाण, कैवल्य ज्ञान या मोक्ष की अवस्था का प्रतीक है। जब व्यक्ति निर्विचार और शून्य में चला जाता है तब यह ध्वनि ही उसे निरंतर सुनाई देती रहती है।
 
 प्रणव की महत्ता : शिव पुराण में प्रणव के अलग-अलग शाब्दिक अर्थ और भाव बताए गए हैं- ‘प्र’ यानी प्रपंच, ‘ण’ यानी नहीं और ‘व:’ यानी तुम लोगों के लिए। सार यही है कि प्रणव मंत्र सांसारिक जीवन में प्रपंच यानी कलह और दु:ख दूर कर जीवन के अहम लक्ष्य यानी मोक्ष तक पहुंचा देता है। यही कारण है ॐ को प्रणव नाम से जाना जाता है। दूसरे अर्थों में प्रणव को ‘प्र’ यानी यानी प्रकृति से बने संसार रूपी सागर को पार कराने वाली ‘ण’ यानी नाव बताया गया है। इसी तरह ऋषि-मुनियों की दृष्टि से ‘प्र’ अर्थात प्रकर्षेण, ‘ण’ अर्थात नयेत् और ‘व:’ अर्थात युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव: बताया गया है। जिसका सरल


स्वत: ही उत्पन्न होता है जाप : ॐ के उच्चारण का अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आता है जबकि उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं होती आप सिर्फ आंखों और कानों को बंद करके भीतर उसे सुनें और वह ध्वनि सुनाई देने लगेगी। भीतर प्रारंभ में वह बहुत ही सूक्ष्म सुनाई देगी फिर बढ़ती जाएगी। साधु-संत कहते हैं कि यह ध्वनि प्रारंभ में झींगुर की आवाज जैसी सुनाई देगी। फिर धीरे-धीरे जैसे बीन बज रही हो, फिर धीरे-धीरे ढोल जैसी थाप सुनाई देने लग जाएगी, फिर यह ध्वनि शंख जैसी हो जाएगी और अंत में यह शुद्ध ब्रह्मांडीय ध्वनि हो जाएगी।
 
 शारीरिक रोग और मानसिक शांति हेतु : इस मंत्र के लगातार जप करने से शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलती है। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होता है। इससे शारीरिक रोग के साथ ही मानसिक बीमारियां दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं।


 सृष्टि विनाश की क्षमता : ओम की ध्वनि में यह शक्ति है कि यह इस ब्रहमांड के किसी भी गृह को फोड़ने या इस संपूर्ण ब्रह्मांड को नष्ट करने की क्षमता रखता है। यह ध्वनि सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और विराट से भी विराट होने की क्षमता रखती है।
 
 शिव के स्थानों पर होता रहता है ओम का उच्चारण : सभी ज्योतिर्लिंगों के पास स्वत: ही ओम का उच्चारण होता रहता है। यदि आप कैलाश पर्वत या मानसरोवर झील के क्षेत्र में जाएंगे, तो आपको निरंतर एक आवाज सुनाई देगी, जैसे कि कहीं आसपास में एरोप्लेन उड़ रहा हो। लेकिन ध्यान से सुनने पर यह आवाज ‘डमरू’ या ‘ॐ’ की ध्वनि जैसी होती है। वैज्ञानिक कहते हैं कि हो सकता है कि यह आवाज बर्फ के पिघलने की हो। यह भी हो सकता है कि प्रकाश और ध्वनि के बीच इस तरह का समागम होता है कि यहां से ‘ॐ’ की आवाजें सुनाई देती हैं।

तिलक या त्रिपुंड

🔱 तिलक किसे कहते है तथा किस दिन किस का तिलक लगाये और इस में कौन कौन देवता निवास करते है !!🚩

ज्योतिष के अनुसार यदि तिलक धारण किया जाता है तो सभी पाप नष्ट हो जाते है सनातन धर्म में शैव, शाक्त,वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं।

ललाट अर्थात माथे पर भस्म या चंदन से तीन रेखाएं बनाई जाती हैं उसे त्रिपुंड कहते हैं। भस्म या चंदन को हाथों की बीच की तीन अंगुलियों से लेकर सावधानीपूर्वक माथे पर तीन तिरछी रेखाओं जैसा आकार दिया जाता है।
शैव संप्रदाय के लोग इसे धारण करते हैं। शिवमहापुराण के अनुसार त्रिपुंड की तीन रेखाओं में से हर एक में नौ-नौ देवता निवास करते हैं।
🔱 त्रिपुंड के देवताओ के नाम इस प्रकार हैं 🔱
〰️〰️〰️〰️〰️
👉 अकार,गार्हपत्य अग्नि,पृथ्वी, धर्म,रजोगुण,ऋग्वेद,क्रियाशक्ति, प्रात:स्वन तथा महादेव- ये त्रिपुंड की पहली रेखा के नौ देवता हैं।

👉 ऊंकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यंदिनसवन, इच्छाशक्ति, अंतरात्मा और महेश्वर- ये त्रिपुंड की दूसरी रेखा के नौ देवता हैं।

👉 मकार,आहवनीयअग्नि, परमात्मा,तमोगुण,द्युलोक,ज्ञानशक्ति, सामवेद,तृतीयसवन तथा शिव- ये त्रिपुंड की तीसरी रेखा के नौ देवता हैं।

त्रिपुंड का मंत्र-ॐ त्रिलोकिनाथाय नम:

🔱 तिलक के प्रकार 🔱

तिलक कई प्रकार के होते हैं – मृतिका,भस्म,चंदन,रोली,सिंदूर,गोपी आदि।

सनातन धर्म में शैव,शाक्त,वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं।
चंदन का तिलक लगाने से पापों का नाश होता है,व्यक्ति संकटों से बचता है,उस पर लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है,ज्ञानतंतु संयमित व सक्रिय रहते हैं।

▪️चन्दन के प्रकार👉हरि चंदन, गोपी चंदन, सफेद चंदन, लाल चंदन, गोमती और गोकुल चंदन।

🔱 तिलक लगाने के लाभ 🔱
〰️〰️〰️
👉 तिलक करने से व्यक्त‍ित्व प्रभावशाली हो जाता है दरअसल, तिलक लगाने का मनोवैज्ञानिक असर होता है क्योंकि इससे व्यक्त‍ि के आत्मविश्वास और आत्मबल में भरपूर इजाफा होता है।
👉 ललाट पर नियमित रूप से तिलक लगाने से मस्तक में तरावट आती है।लोग शांति व सुकून अनुभव करते हैं।यह कई तरह की मानसिक बीमारियों से बचाता है।
👉 दिमाग में सेराटोनिन और बीटा एंडोर्फिन का स्राव संतुलित तरीके से होता है,जिससे उदासी दूर होती है और मन में उत्साह जागता है।यह उत्साह लोगों को अच्छे कामों में लगाता है।
👉 इससे सिरदर्द की समस्या में कमी आती है।
👉 हल्दी से युक्त तिलक लगाने से त्वचा शुद्ध होती है।हल्दी में एंटी बैक्ट्र‍ियल तत्व होते हैं जो रोगों से मुक्त करता है।
👉 धार्मिक मान्यता के अनुसार, चंदन का तिलक लगाने से मनुष्य के पापों का नाश होता है।लोग कई तरह के संकट से बच जाते हैं।ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक,तिलक लगाने से ग्रहों की शांति होती है।
👉 माना जाता है कि चंदन का तिलक लगाने वाले का घर अन्न-धन से भरा रहता है और सौभाग्य में बढ़ोतरी होती है।
🔱 तिलक लगाने का मन्त्र 🔱
केशवानन्नत गोविन्दबाराह पुरुषोत्तम।
पुण्यं यशस्यमायुष्यं तिलकंमे प्रसीदतु।।
कान्ति लक्ष्मीं धृतिं सौख्यं सौभाग्यमतुलं बलम्।
ददातु चन्दनं नित्यं सततं धारयाम्यहम् …


श्री राम जी की तिलक धारण करने से व्यक्ति राम जी के समान पराक्रमी बलवान तथा सुन्दर लगने लगता है
एक बार तिलक लगा कर अपनी फोटो लीजिये फिर तिलक या चन्दन लगा कर अपनी फोटो लीजिये अन्तर स्वयं स्पष्ट हो जाएगा

भगवान श्री राम के किन गुणों ने उन्हें मानव से मर्यादा पुरुषोत्तम बनाया ?

भगवान श्री राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये जाते है क्योकि उनके हर कार्य और कर्त्तव्य सामान्य मानव के लिए करना अत्यंत कठिन ही होगा पर अगर आज के मानव उन गुणों के कुछ भाग को भी ग्रहण करले तो भी अपने व्यक्तिगत और सामाजिक -व्यावसायिक जीवन में महान सफतला प्राप्त कर सकते है। उनका चरित्र इतना विशाल है की उनके सारे गुणों को बता पाना हमारे लिए असंभव है पर कुछ की चर्चा यहाँ पर कर रहे है।

अध्धयन शीलता – महाराज दसरथ ने जब उन्हें महर्षि वशिष्ट के आश्रम में शिक्षा के लिए भेजा तो उन्होंने अपनी शिक्षा बिना किसी व्यवधान के समय पर पूर्ण की।

मित्रता – प्रभु श्री राम अपने मित्रों को हमेशा अपने ही बराबर सम्मान दिया, चाहे वो निशाधराज, सुग्रीव या विभीषण ही क्यों न हो।

शत्रुता – उन्होंने अपने शत्रुओ से भी बड़ी विनम्रता से व्यवहार किया और बार बार सचेत किया की आप भी सद्मार्ग पर आ जाए जैसे रावण।

त्याग – प्रभु श्री राम अगले ही दिन जिस अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट बनाने वाले हो और वह का जनमानस भी उनके ही साथ हो फिर भी माता पिता की आज्ञा मानकर और अपने भाई के लिए राज पाठ का त्याग कर दिया।

सहज – इतनी सहजता की कोई भी उनके सामने अपनी बात रख सकते है यहाँ तक की उनके राज्य का धोबी भी अपने मन की शंका जो उनके ही खिलाफ थी रख पाया।

सहज प्रेमी– माता सीता से उनका अगाध प्रेम किसी से छुपा नहीं है उनके लिए वो पैदल श्रीलंका तक जा पहुंचे और उन्हें सुरक्छित वापस लाये।
सभी को सम्मान देने वाले – श्री राम ने गिध्ध जटायु को भी सम्मान दिया व उन्हें अपने पिता तुल्य ही सम्मान दिया।
लगातार सीखने वाले – भगवान श्री राम ने अपने १४ वर्ष के वनवास के समय आने ऋषि-मुनियो के आश्रम में जा के अपने ज्ञान को बढ़ाया जो बाद में लंका युद्धः में सहायक हुआ।
आत्मनिर्भर – प्रभु श्री राम का यह गुण सबमे श्रेठ है, क्योकि इतने बड़े साम्राज्य के महाराज होने के बाद भी माता सीताहरण या लंका युद्धः के समय कभी भी राजधानी अयोध्या से किंचित भी सहयोग लिया हो चाहे जो भी परिस्थि या कठिनाई उनके सामने आई उसका निवारण उन्होंने ने उनके पास जो उपलब्ध साधन से उसी से पूर्ण किया और विजयी हुए।

हमेशा उनको सम्मान देना जो उन्हें प्रेम करते है“सबरी के बेर “ उनके जीवन का ये महान उदहारण है उन्होंने माँ सबरी का प्रेम देखा और उनके मातृत्व को सम्मानित करने के लिए उनके जूठे बेर भी खाये।

अपनी प्रतिज्ञा में अटल रहना – प्रभु श्री राम ने जो भी अपने हाथ में कार्य लिया जब तक वह पूर्ण नहीं हुआतब तक वो रुके नहीं रामायण में एक प्रसंग है जब उन्होंने रक्छासो के द्वारा खाई हुई हड्डियों के ढेर को देखा और प्रतिज्ञा ली की इनका मई समूल नाश करूँगा और किया।

संयमित – प्रभु श्री राम ने हमेशा संयमित रहे न अत्यधिक दुःख को हावी होने दिया और न ही सुख को।


कृतज्ञ – उनके जीवन काल में जो लोग उनके सहयोगी रहे श्री हनुमान म सुग्रीव विभीषण अंगद जामवंत और उनके छोटे भाई सभी के प्रति वो कृतज्ञ रहे।

“हरी अनंत हरी कथा अनंता” अतः हमें प्रभु श्रीराम के दिखाए गए मार्ग में चलना चाहिए जिससे एक सुन्दर और संगठित समाज की स्थापना कर पाएंगे जय श्री राम “

मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर थोड़ी देर क्यों बैठा जाता है?

परम्परा है कि किसी भी मंदिर में दर्शन के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी या ओटे पर थोड़ी देर बैठना। क्या आप जानते हैं इस परम्परा का क्या कारण है ?
आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठकर अपने घर/व्यापार/राजनीति इत्यादि की चर्चा करते हैं, परन्तुु यह प्राचीन परम्परा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। इस लोक को मनन करें और आने वाली पीढ़ी को भी बताएं। श्लोक इस प्रकार है ~

अनायासेन मरणम् ,
बिना दैन्येन जीवनम्।
देहान्ते तव सानिध्यम् ,
देहि मे परमेश्वरम्॥

अनायासेन मरणम् अर्थात् बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठाकर मृत्यु को प्राप्त ना हों चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।
बिना दैन्येन जीवनम् अर्थात् परवशता का जीवन ना हो। कभी किसी के सहारे ना रहाना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है वैसे परवश या बेबस ना हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।
देहांते तव सानिध्यम् अर्थात् जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।
देहि में परमेश्वरम् हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।

भगवान से प्रार्थना करते हुऐ उपरोक्त श्र्लोक का मौन वाचन करें। गाड़ी, लाडी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना है, यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठकर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार,नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है वह याचना है वह भीख है।

‘प्रार्थना’ शब्द के ‘प्र’ का अर्थ होता है ‘विशेष’ अर्थात् विशिष्ट, श्रेष्ठ और ‘अर्थना’ अर्थात् निवेदन। प्रार्थना का अर्थ हुआ विशेष निवेदन।

मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, निहारना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना, हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, श्रृंगार का, सम्पूर्ण आनंद लें, आंखों में भर लें निज-स्वरूप को।
दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया हैं उसी दिव्य स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करें तब नेत्र बंद करें और अगर निज आत्मस्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और पुन: दर्शन करें।

सबसे पहला काम क्या करना चाहिए सुबह उठकर?

(प्रातः स्मरण )

(ब्रह्मो मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थ चनुचिंतयेत – मनु:)

धर्मशास्त्रों ने निद्रा त्याग के उपरांत मनुष्य का पहला कर्त्तव्य उन कोटि- कोटि ब्रह्माण्ड -नायक सच्चिदानंद स्वरुप प्यारे प्रभु का स्मरण करना चाहिए जिन की असीम कृपा से अत्यंत दुर्लभ मानव देह प्राप्त हुई है, जो समस्त सृस्टि के कण -कण में ओतप्रोत है और सत्य शिव और सुन्दर है। जिनकी कृपा से मनुष्य अपने सारे भय से मुक्त होकर ” अहम् ब्रह्मास्मि ” के उच्च लक्ष्य की प्राप्ति करता है और इससे सारे दिन ही आत्मविश्वास और असीम ऊर्जा का संचार होता रहेगा और मंगलमय वातावरण में पूरा दिन व्यतीत होग।

उक्त विषय का विस्तार तो ान्हिकसत्रावली आदि दिनचर्या विधायक ग्रंथो में दृस्तव्य है। हम यहाँ विशेष योग्य एक पद्य ही उद्धृत करते है यथा :-

प्रातः स्मरामि भवभीतिमहरातिशांत्यै, नारायणं गरुणवाहमबजनाभ।।
ग्राहाभिभूतवरवाराणमुक्तिहेतुम,चक्रायुन्ध्रम तरुणवारीज -पत्र -नेत्रं।।

Select your currency
INR Indian rupee